अभूतपूर्व कवि

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जब मेरी कविता कहने की बारी आई,

काफी लोग घर जा चुके थे।

जो कुर्सियों पर अटके थे, सुस्ता चुके थे।

 

नींद मुझे भी थी आई,

मैंने ली एक जम्हाई, और कहा,

मेरे जागते और सोते हुए भाइयों।

 

या तो कविता हो ऐसी,

कि दुनिया हँस-हँस के दोहरी हो जाए,

या हो इतनी गहरी,

कि उसमें डूब के सो जाए।

 

जब उभरने लगें खर्राटे,

बदलने लगें लोग करवटें,

समझ कुर्सियों को खाटें,

तब ही कवि को आनंद आता है।

नींद विभोर श्रोता ही केवल,

गहरी कविता समझ पाता है।

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