मेरी हिन्दी कविताएँ
झलकियाँ
May 1, 2025
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चाय की दुकान
जब मेरी कविता एक अखबार में छपी,
प्रेस रेपोरटर्ज़ ( पत्रकार) घर आने लगे,
सुबह शाम घर के चक्कर लगाने लगे ।
पहले-पहल तो मैं फूल न समाता ।
साक्षात्कार के लिए झट बैठ जाता
उन्हें बैठक में बैठाता, चाय पिलाता ।
इंपोर्टेड सिगरेट पीने को देता,
बीवी बच्चों से भी मिलवाता ।
कभी-कबार कुछ और भी हो जाता,
एक-आध ह्विस्की का दौर भी हो जाता ।
नयनों में ख्वाब भरे हैं
नयनों में ख्वाब भरे हैं
नींद कहाँ से आए
वह जिसके ख्वाब हैं सारे
कभी आकर तो समझाए
बंद करती हूँ आँखें
घबरा फिर खोलती हूँ हाय
वह जिसके ख्वाब हैं सारे
कहीं आकर चला न जाए
काफ़ी है, हाँ काफी है
बहुत है पर काफी नहीं है
काफ़ी है, हाँ काफी है
कहा करती थी मेरी माँ
पापा जो थोड़ा कमाते थे उसमें
दो वे और चार हम बच्चे, भर पेट खाते थे
और कोई भिखारी जब द्वार पर कभी आता था
तो कोई कपड़ा, लत्ता, या कटोरा भर चावल, आटा
या पैसा, आना, ही सही, पर खाली हाथ नहीं जाता था