गृहस्थ आश्रम

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अध्याय 2 - बीवी का जवाब

मैं कर के बंद पत्र को
पत्र पेटी में डाल आया
उत्तर की इंतज़ार करने लगा
मन ही मन डरने लगा।


ज्यों ज्यों दिन गुजरने लगे
मेरे चहेरे पर रंग आने, और उतरने लगे।
रोज़ शाम को जब मैं घर आता
पहले प्रभु को याद करता
फिर लैटर बॉक्स को हाथ लगाता।

आखिर एक दिन जब मैं घर आया
पत्र पेटी में मैंने बीवी का पत्र पाया।
और चिट्ठियाँ लेटीं थीं,
पर वह पुलिस मैन की तरह खड़ा था।
लिफाफा काफी मोटा था,
और पत्र काफी कड़ा और बड़ा था।

कांपते हुए हाथों से मैंने उसे खोला
घबराई हुई नज़रों से संबोधन टटोला।

My Dear Navneet
खुद को "डीयर" पढ़ कर मेरा साहस बड़ा,
और मैंने ख़त को आगे पढ़ा।

प्रेरणा, कविता, शांति - यह सब क्या है?
पत्नी को पत्र और महबूबा को
कलाम लिखने में फर्क होता है।
जो पति नहीं समझता यह,
उसका तो बेड़ा गर्क होता है।
घर तंदूर होता है उसके लिए,
और बाहर नरक होता है।

तुम क्या सोचते हो तुम कवि हो तो,
बाकि सब बेवकूफ हैं?
जब चाहो जिसे उल्लू बना लो?
शब्दों का जाल फैंक के मोहित कर दो,
उलझा दो, रूझा लो ?

हो चुकी है तुम्हारी शादी ,
मैं तुम्हें याद दिलाती हूँ।
अब नहीं तुम्हें पहले सी आज़ादी ,
अभी प्यार से समझाती हूँ।

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