हरी शॉल ओढ़े

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और मैं तुम्हारे आने का,
इन्तज़ार करता रहूँगा।
जीने के बहाने ढूँढता, कविता में बुला,
तुम्हें प्यार करता रहूँगा।
कल के तुम्हारे वादे पर मैं आज भी,
करता एतबार रहूँगा ।

जो खालीपन छोड़ गई थी तुम पीछे
उसे अब तक भर नहीं पाया हूँ,
मैं तुम्हारे ख्यालों से उभर नहीं पाया हूँ।

बहुत दूर निकला आया हूँ मैं खुद से ही,
तलाशता तुम्हें और बचाता,
अपने ही मन में उठते सवालों से।
अब भी रह- रह के लहू रिसता है
मेरे दिल के छालों से ।

बूढ़ा हो गया हूँ मैं,
ज़िन्दगी के दिन रह गए हैं थोड़े।
पर अब भी काल की पहुँच से परे,
देखता हूँ तुम्हें,शाश्वत प्रेम की प्रतिमा।
एक और कल का इंतज़ार करता ।
जब आओगी तुम निकल ,
मुझसे कहीं ज़्यादा प्यासी,
मुझसे कहीं ज़्यादा विकल,
और गले लगोगी मुझे

कितना सुहाना होगा वह पल।
कह नहीं सकता मैं अपने दिल को,
कि वह तुम्हारे आने कि आस छोड़े
क्योंकि, हर पल कहता है वह मुझसे,
देखता हूँ अब भी मैं,
समय की सीमाओं से परे,
खड़ी है वह वहीं हरी शॉल ओढ़े।

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