हरी शॉल ओढ़े
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तुम मुझे छोड़ के जिस दिन, जिस पहर गई थी।
अब भी याद आती हो वही हरी शॉल ओढ़े
देख कर मुझे दूर से मुस्कुराती हो
और वही मैं शर्माया सा खड़ा हूँ दूर कोने में
नमस्कार की मुद्रा में हाथ जोड़े।
देखता, दूर बेचैन तुम्हारी नज़र,
उठती- लांघती, बेखबर,
जमावड़े के बाधा डालते सर।
रुकती, सहमी सी, निहारती- गुहारती।
मन में प्रभु का नाम उच्चारती,
रुह से हुई चंचल- ठिठक जाती,
दुनियाँ की पैनी नज़रों से डर।
सजल नयन, बेताब मन चाहता
लूँ मैं उसे(मुझे) बाहों में भर।
या सिमट जाऊँ उसकी बाहों में बिजली से डर।
बढ़ते नहीं कदम, सखियाँ बाँह पकड़ ले जाना चाहतीं।
तुम ना ना करती हाथ छुड़ाती, बहाना करती।
देखती पीछे मुड़- मुड़ कर,
आखिर पाकर मेरी झलक खुश हो हाथ हिलाती।
फिर उठे हाथ से बालों को सँवारती चली गई
और राह देखता रह गया मैं उम्र भर।
मुझे नहीं पता था, तुम्हें भी,
वो हमारी आखरी मुलाकात होगी।
फिर कभी होगी तो बस,
सिर्फ़ फोन पर ही बात होगी।
मुझे खबर होगी तो बस एक कार्ड के सहारे
और एक दीवार खड़ी हो जाएगी बीच मेरे तुम्हारे।
मुझे नहीं पता था उस दिन,
गैर की शादी में कोई अजनबी,
तुम पर फ़िदा हो जाएगा,
और इतनी जल्दी अचानक,
तुम्हारा विवाह हो जाएगा।
तुम मेरी स्पर्श की दुनियाँ से चली जाओगी,
और केवल ख्यालों में ही आओगी।
वैसे ही हंसती, मुस्कुराती,
मुझे जीने का अन्दाज़ सिखाती।
ज़िन्दगी मेरी, तुम किसी और की ज़िन्दगी हो जाओगी।