गृहस्थ आश्रम

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अध्याय 1 - बीवी को पत्र

‘प्लाट’ अच्छा है कहेंगे एक दिन,
अपनी बीवी के लौट आने की खबर जान कर,
देखो, जला दिया इसने अपनी महबूबा को तेल डाल कर।

सच, मेरे उससे कोई सम्बन्ध नहीं हैं।
हमदर्दी है ज़रूर थोड़ी सी,
पर तुम्हारे सिवा मुझे और कोई पसंद नहीं है।

हाँ आती है वह अपनी व्यथा सुनाने।
बैठ रोत़ी है दो पल मेरे सिरहाने,
पर जब भी वह रोत़ी है,
हमेशां अपनी ही साड़ी का पल्लू भिगोती है।

मेरे कंधे पर सर रख कर,
वह कभी भी रोई नहीं।
मेरी कोई भी कमीज़ उसने,
कभी अपने आंसुओं से भिगोई नहीं।

मिसेज़ सिंग ने परसों आखंड पाठ रखवाया था।
हमारी ही सूजी का बना हलवा खिलाया था।
मैं गया उनके घर तो कहने लगी,
“इंसान को इश्वर से डरना चाहिए”
“धर्म कर्म का काम, नेकी और दान करना चाहिए”।

जब से तुम गई हो यहाँ काफी कुछ 'चेंज' हो गया है।
शाम को तो लगता है जैसे,
घर 'टेलेफोन एक्सचेंज' हो गया है।
सब पड़ोसी आते हैं, थोड़ा बतियाते हैं,
और बातों बातों में एक दो टेलेफोन भी लगा जाते हैं।

कई बार तो उन्हें लाइन भी लगानी पड़ती है।
मनोरंजन करना पड़ता है मुझे,
चाय भी पिलानी पड़ती है।

टीटू का भी 'मिड टर्म' का 'रिज़ल्ट कार्ड' आया है।
कोई भी विषय पास नहीं कर पाया है।
अंग्रेजी में तो फिर भी पाँच अंक हैं,
हिसाब में तो सिफ़र ही आया है।

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