तुम जब से गई हो मायके मेरी प्रेरणा भी चली गई है,
मुझसे तो मेरी कविता, रूठ ही गई है।
बैठा रहता हूँ दिन भर, सोचता रहता हूँ।
एकांत में अपने को, कोसता रहता हूँ।
तुम न जाती तो शायद, प्रेरणा भी न जाती।
मुझसे मेरी कविता रूठ न पाती।
अकेले में बस सब सूना-सूना सा लगता है।
रात हो गई लम्बी, दिन दूना-दूना सा लगता है।
शांति सब ओर, सब कुछ पराया सा लगता है।
हर तरफ मातम छाया सा लगता है।
बच्चे लड़ रहे हों, रो रहे हों।
बीवी के भाषणों पर भाषण हो रहे हों,
सच तब ही मेरे मन को आराम मिलता है।
अपना मन मृणाल कीचड़ में ही खिलता है।