गृहस्थ आश्रम

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अध्याय 1 - बीवी को पत्र

तुम जब से गई हो मायके मेरी प्रेरणा भी चली गई है,
मुझसे तो मेरी कविता, रूठ ही गई है।

बैठा रहता हूँ दिन भर, सोचता रहता हूँ।
एकांत में अपने को, कोसता रहता हूँ।

तुम न जाती तो शायद, प्रेरणा भी न जाती।
मुझसे मेरी कविता रूठ न पाती।

अकेले में बस सब सूना-सूना सा लगता है।
रात हो गई लम्बी, दिन दूना-दूना सा लगता है।

शांति सब ओर, सब कुछ पराया सा लगता है।
हर तरफ मातम छाया सा लगता है।

बच्चे लड़ रहे हों, रो रहे हों।
बीवी के भाषणों पर भाषण हो रहे हों,
सच तब ही मेरे मन को आराम मिलता है।
अपना मन मृणाल कीचड़ में ही खिलता है।

अब न तुम्हारे भाषण हैं,
न ही बच्चे मेरी जान को रोने को,
न बर्तन हैं और न ही कपड़े धोने को।

चैन नहीं पड़ता, मन को विश्वास नहीं आता,
उठ उठ कर 'चेक' करने बार-बार,
रात को रसोई में मैं हूँ जाता।

कुछ पकाने को भी आजकल मन नहीं चाहता,
आजकल अक्सर मैं बाहर ही हूँ खाना खाता।
मैंने घर खाना पकाना छोड़ दिया है।
दोस्तों ने घर आना छोड़ दिया है।

या यूँ कह लो कि बस छूट सा गया है।
पिछली पार्टी में तुम्हारे 'डिनर सेट' का डोंगा टूट गया है।
फ़्रांस-बीन की बेल गाय खा गई है।
मनी-प्लांट पर पतझड़ छा गई है।

माली, महरी, धोबी, गवाला — सब लाभ उठा रहे हैं,
बताए बिन बताए छुट्टियाँ मना रहे हैं।

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