कहाँ रोज रोज फिर सुबह सवेर,
करनी पड़ती इन की "केयर".
जब आफिस को होती हो देर,
साथ ही पत्नी का लेक्चर चलता हो।
कहाँ संवरती हैं मूँछें,
गुस्से में जब मन जलता हो।
हर वक्त यही लगता है डर,
कहीं खुद से ही न चिढ़ कर,
कर दो न क्रूर प्रहार मूँछ पर यार,
हो आपे से बाहर।
इस खतरे से खुद को बचा लो,
नकली ही कोई मूँछ लगालो।
न बढ़ने की चिन्ता, न कटने का डर,
न ही चाहिए मेंन्टिनेंस उस पर।
फिर चाहो जैसी भी लगा लो,
अपने को कभी अकबर, कभी प्रताप,
और कभी शेखचिल्ली ही बना लो।