काका नहीं आया

काका नहीं आया

उस दिन मैं घर नहीं आया था। नई-नई नौकरी थी मेरी, काम बड़ा था। मुझे ट्यूबवेल लगा रही कंपनी के काम को देखने के लिए फैक्ट्री में ही रुकना पड़ा था। बात उन दिनों की है, जब मोबाइल फोन तो क्या, लैंडलाइन फोन भी किसी विरले के पास ही होता था।

शाम तक मुझे यह मालूम नहीं था कि रात को रुकना पड़ेगा या नहीं। नहीं तो मैं शायद डे-शिफ्ट वाले किसी सहकर्मी के हाथ संदेश भिजवा देता, या फैक्ट्री की वह कार जो रोज़ शाम को सीनियर अफसरों को चंडीगढ़ छोड़ने जाती थी — और जिसमें बैठना मेरे लिए गौरव का क्षण होता — उसी से घर लौट आता।

जब वह कार घर के गेट पर रुकती थी, और माँ उसे देखती, तो उसकी आँखों में वही सुकून होता जो शायद मुझे कार में बैठने पर होता था। साँझ ढलते ही माँ बालकनी में खड़ी, गली के छोर तक आते-जाते हर इंसान को निहारती रहती — शायद अपनी बेचैनी से ध्यान हटाने के लिए। मगर वह बेचैनी कहाँ हटने देती थी। बार-बार आँखें उठाकर दूर तक देखती, वहीं जहाँ तक निगाह जाती।

धीरे-धीरे आँखें धुंधलाने लगी थीं उसकी। कभी कह भी देती, “मेरी आँखों के आगे जाले आने लगे हैं।” मगर हमने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया। इसलिए नहीं कि वह शिकायत नहीं करती थी, बल्कि इसलिए कि उसने कभी कुछ माँगा ही नहीं था। हमने कभी सोचा ही नहीं कि माँ भी बीमार हो सकती है, कि वह भी इंसान है — हाड़-माँस से बनी।

हममें से किसी ने नहीं पूछा कि घर के लिए राशन कौन लाता है, सब्ज़ी कौन खरीदता है, पैसे कहाँ से आते हैं। पापा की आमदनी भी इतनी नहीं थी कि चार वयस्क बच्चों की सारी ज़रूरतें पूरी हो सकें।

जब मेरी बड़ी बहन ने यूनिवर्सिटी में टॉप किया और उसे लेक्चरर की नौकरी मिली, तब जाकर कुछ राहत मिली। मैं भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म करके फैक्ट्री में काम करने लगा था। पर कॉलेज में रहते समय मैंने कभी घर का हाथ नहीं बँटाया था — “बहुत मुश्किल पढ़ाई है” कह कर।

छोटी बहन जवान थी — माँ को लगता कि उसे मंडी भेजना ठीक नहीं। “इस उम्र की लड़की को सब्ज़ी लेने भेजेंगे? वहाँ बदतमीज़ लड़के होते हैं, घूरते हैं, बकवास करते हैं।” और छोटा भाई तो अभी बच्चा ही था।

पापा ज़्यादातर टूर पर रहते, दो पैसे ज़्यादा कमाने की जद्दोजहद में — और हम सब…? बस अपने-अपने कामों में व्यस्त।

माँ सब कर लेती थी — अपने हाथों से। और फिर जब कभी कोई कहता — “क्यों नहीं किसी बाई को रख लेतीं?” — तो मुस्कुरा कर कहती, “क्या फ़ायदा, पैसे भी दो और काम भी खुद करो।”

हमने कभी नहीं सोचा कि वह कब उठती है, कब सोती है, कब थकती है। हम यह नहीं देख पाए कि उसका शरीर धीरे-धीरे जवाब देने लगा है।


रात उस दिन मैं फैक्ट्री के गेस्ट हाउस में ही रुक गया था। रात का एक बज गया था ट्यूबवेल लगते-लगते। और उस समय कोई बस भी नहीं चलती थी दिल्ली से चंडीगढ़ — नाइट सर्विस नहीं होती थी।

और माँ? वह रात भर उठ उठ कर बालकनी तक जाती रही होगी… और लौट कर बिस्तर पर लेटती रही होगी, हर बार यही बुदबुदाते हुए —
“काका नहीं आया…”


सुबह के साढ़े आठ बजे थे जब मुझे किसी ने ज़ोर से हिलाकर जगाया — “उठो, तुम्हारे पापा आए हैं।”

मैंने आँखें मलते देखा — पापा मेरे सामने खड़े थे। विशाल सीना, गंभीर चेहरा, हल्की-सी मुस्कान, शायद यह देखने की तसल्ली की मैं ठीक हूँ। पास आकर बेड पर बैठ गए और बोले —
“तेरी माँ रात भर सोई नहीं। उठ उठ कर बालकनी तक जाती रही, और फिर बिस्तर पर लेट कर हर बार यही कहती रही — ‘काका नहीं आया।’”

उसकी उल्टियाँ लगातार बढ़ने लगी थीं। पहले 16 सेक्टर के अस्पताल ने, फिर पी.जी.आई. के डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया। “बहुत देर हो चुकी है,” कहा डॉक्टर ने।

कैंसर अब आंतों तक फैल चुका था। हम हर उपाय कर चुके थे। वैद्य जी को शिमला से बुलाया गया — वही जिनकी औषधियों से हम बड़े हुए थे।

माँ की आँखों में कुछ सवाल थे। वही, जो कुछ समय पहले से उसे धुंधला दिखाई देने लगा था। पर उसने कभी कुछ पूछा नहीं। और हम — हम क्या जवाब देते?

वह पैंतालीस की थी — और जैसे-तैसे अपने शिथिल होते शरीर को 18 मार्च तक ज़िंदा रखा — उस दिन मेरे छोटे भाई का जन्मदिन था। शायद वह उस दिन तक उसे देखना चाहती थी।

लेकिन अब तो 20 मार्च हो गई थी — उस दिन से भी दो दिन ऊपर… और साँझ के चार बजे, जब प्राण शरीर छोड़ने की कगार पर थे, तभी उसने फिर एक बार आँखें खोलीं —
“काका नहीं आया?”

और फिर वह चुप हो गई।

मैं उस समय भी फैक्ट्री से लौटते हुए अपने दोस्त के घर कुछ देर बैठ गया था — उसकी माँ, उसकी बहनें… मुझे स्नेह मिलता था वहाँ। पर उस दिन, जाने क्यों, मन भारी हो गया और मैं उठ कर घर की ओर चल दिया।


हमारा फ्लैट पहली मंज़िल पर था। डरते-डरते सीढ़ियाँ चढ़ीं। दरवाज़े पर दस्तक दी। कमरे की मध्यम रौशनी बाहर तक आ रही थी। सब माँ के पलंग के आस-पास ही बैठे थे।

किसी ने कहा — “कहाँ रह गया था तू? चार बजे साँस बंद हो गई थी इसकी…”

फिर अचानक उसने आँखें खोलीं —
“काका नहीं आया?”
और फिर —
“काका…”

शब्द अधर में ही रह गए। सब लोग उसके पैर और हथेलियाँ सहलाने लगे, गायत्री मंत्र पढ़ने लगे, और धीरे-धीरे उसके होंठों की हरकत भी थम गई।

उसका सिर लुड़क गया। शरीर ठंडा पड़ने लगा।
माँ अब इस दुनिया में नहीं रही थी।


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