अभूतपूर्व कवि

जब मेरी कविता कहने की बारी आई, 

काफी लोग घर जा चुके थे। 

जो कुर्सियों पर अटके थे, सुस्ता चुके थे। 

नींद मुझे भी थी आई, 

मैंने ली एक जम्हाई, और कहा, 

मेरे जागते और सोते हुए भाईओ।

या तो कविता हो ऐसी, 

कि दुनिया हंस-हंस के दोहरी हो जाए, 

या हो इतनी गहरी, 

कि उस में डूब के सो जाए। 

जब उभरने लगें खर्राटे, 

बदलने लगें लोग करवटें, 

समझ कुर्सियों को खाटें, 

तब ही कवि को आनन्द आता है। 

नींद विभोर श्रोता ही केवल, 

गहरी कविता समझ पाता है।

मैं कविता कहे जा रहा था, 

कि अचानक कुछ गिरने की आवाज़ आई, 

मैंने देखा एक व्यक्ति, कुर्सी से नीचे गिरा पड़ा था। 

शायद् करवट लेते समय गिर पड़ा था, 

और दूसरा, जो कि उसका मित्र या सम्बन्धी था, 

उसके पास ही खड़ा था। 

घबराया सा लगता था, 

नींद से जगाया सा लगता था।

जब नीचे पड़ा व्यक्ति गिर कर भी न उठा, 

तो मुझे लगा दाल में कुछ काला, 

मैंने खुद को सम्भाला, 

और माईक से थोड़ा हट कर खड़ा हो गया।  

काफी लोग जमा हो रहे थे। 

वहाँ तो अच्छी खासी भीड़ जमा हो जाती, 

पर ज्यादातर लोग सो रहे थे।

जिसका मुझे डर था वही होने लगा था, 

हर सोया हुआ व्यक्ति, 

अब लगभग जगा था। 

तूफान के आसार थे, 

बादल घिर रहे थे, मुर्झाए, 

सुस्ताए सर भी अब बखूब फिर रहे थे।

मैंने सोचा इस शोरगुल में तो सब जाग जाएंगे, 

और इस मनहूस की हालत के लिए 

मुझे ही दोषी ठहराएंगे। 

इनका ध्यान बाँटने का प्रयत्न करना चाहिए 

इन्हें खुश करने का, 

कोई यत्न करना चाहिए।

इतने लोगों को जगा देख, 

मेरा कुछ साहस बढ़ा 

और मैंने एक छन्द और पढ़ा 

इतने में एक छोटा सा टमाटर 

मेरे मुंह पर पड़ा। 

पंडाल में स्वर उभरा, बड़ा-बड़ा

मैं बड़ा सा पद्य सोचने लगा 

एक टमाटर जो काफी बड़ा था, 

दूसरे ही पल मेरे पास आन पड़ा। 

मुझे सारी बात समझ आ गई

सजग प्रेहरी की तरह मैंने पोजीशन ले ली 

जो काफी सुरक्षित थी, 

मानों मुझ से कवियों के लिए आरक्षित थी। 

थोड़ी सी माईक से परे, पर्दे की आड़ में 

कविता तो गई भाड़ में, 

लोग कवि के लिए टूट पड़े थे। 

हम ही थे जो अब भी खड़े थे, 

वर्णा ऐसे माहौल में तो आम कवि भाग जाते हैं, 

क्योंकि शोर सुन कर, 

सोए हुए लोग भी जाग जाते हैं।

पर मैं कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं था, 

एक्सपीरिएन्सड था फील्ड में कोई अनाड़ी नहीं था। 

चारों ओर नज़र घुमा रहा था 

हर वार से खुद को बचा रहा था। 

कभी-कभी मैं झुक जाता, 

तो एक-आध टमाटर आयोजक (जो मेरे पीछे बैठा था) 

तक भी पहुँच जाता। 

आयोजक, जो अपनी गलती पर पछता रहा था, 

सामने आने से घबरा रहा था 

मैं, उसके एहसान का बदला चुका रहा था, 

अपने हिस्से के टमाटर उस तक पहुंचा रहा था।

जब स्टेज टमाटरों से भर गया, 

तो मेरा ध्यान श्रोताओं की जेब पर गया, 

जो धन बर्बाद कर टमाटर लाए थे। 

बड़े अरमान से मेरी कविता सुनने आए थे 

मैंने एक लम्बी साँस खेंच कर कहा, ‘दोस्तो’

उचित यही होगा, कि आप अब बस करो, 

क्योंकि मैं बस नहीं करने वाला हूँ 

इन टमाटरों से मैं भला क्या डरने वाला हूँ ? 

आज मैं अपनी कविता सुना कर ही रहूँगा | 

आप से लोहा मनवा के ही रहूँगा | 

ये टमाटर तो मैं सारे घर ले जाऊँगा 

और जाकर मैं इनकी चटनी बनाऊँगा | 

आजकल वैसे ही सब्ज़ी बड़ी मंहगी है, 

कौन खरीदने जाए सच मानो तो हम इसीलिए ही हैं 

आज यहाँ कविता कहने आए | 

आप लोगों का यदि सहारा न होता , 

तो मेरा तो इस मंहगाई में गुज़ारा न होता | 

हम से यहाँ मेरा संकेत मेरे परिवार की ओर है 

जिसे मैं अपने साथ लाया हूँ सच मानो, 

मैं आज पूरी प्लानिंग कर के आया हूँ |

टमाटर तो क्या 

बच्चे जब अण्डे खाना चाहते हैं 

तो हम किसी कवि सम्मेलन में, 

बिन बुलाए ही पहुंच जाते हैं | 

स्टेज पर चढ़ते हैं अण्डे जब पड़ते हैं , 

तो हम कलैक्ट कर लेते हैं 

घर ले जाते हैं फिर ऑमलेट और फ्राइड ऐग्ज़, 

बना-बना कर खाते हैं | 

बच्चे तो बच्चे उनकी माँ भी खुश हो जाती है 

चाहते हुए भी लिखने से, मुझे रोक नहीं पाती है। 

मुझ से शादी रिगरेट नहीं करती मुस्कुरा देती है 

मेरे लाभ शून्य शौक पर , कभी ऑब्जेक्ट नहीं करती ।

अपनी ज़रूरतों की लिस्ट, 

मुझे हर महीने दे देती है | 

उसी हिसाब से मैं फिर कविता बनाता हूँ 

लोगों का स्टैण्डर्ड देख कर ही 

मैं अपनी कविता सुनाता हूँ |

जिस दिन जूते पड़ने का चाँस होता है 

मैं उस दिन तो ज़रूर फैमिली को साथ लाता हूँ 

कोई घिसी पिटी कविता सुनाता हूँ 

जूते जब पड़ते हैं , 

घर के सदस्य सब स्टेज पर चढ़ते हैं 

और अपना-अपना साईज़ चुन लेते हैं 

इसी बहाने मेरी कुछ कविता भी सुन लेते हैं | 

जब मैडम को सैन्डल पसंद नहीं आती है, 

तो वह इशारा कर देती है, 

मैं कविता की पंक्तियाँ भूल जाता हूँ, 

या कोई चुराई हुई कविता अपनी कह के सुनाता हूँ |

‘दोस्तो’ काफी दिन से बीवी, 

सैन्डल की रट लगा रही है, 

पर क्या करें किसी अच्छे स्टैन्डर्ड के आयोजकों से 

कोई चिट्ठी ही आ रही है ।

मैं झूठ नहीं कहता, 

आज भी मैं खाली हाथ नहीं आया हूँ, 

कलेक्शन के लिए टोकरी साथ लाया हूँ | 

इसलिए आप न सोचिए -विचारिए, 

जितना जी में आए टमाटर मारिए,

बस इतनी कृपा कीजिए, मेरी राय लिजिए 

हो सके तो कभी कुछ और भी चुन लीजिए 

आखिर हम भी इन्सान हैं , 

वेरायटी ऐक्सपैक्ट करते हैं , 

वैसे तो जो भी आप देते हैं 

हंसते-हंसते ऐक्सैप्ट करते हैं 

फिर भी आप यदि वेरायटी देंगे तो अच्छा रहेगा 

मेरा भी कवि सम्मेलनों में इनटेरस्ट बना रहेगा

हर सम्मेलन के लिए तैयार हो कर आऊँगा, 

आप की मन पसन्द कविताएं, 

जी भर कर सुनाऊँगा । 

सुन कर मेरा तर्क पब्लिक में शांति छा गई 

शायद थी उन्हें मेरी बात, कुछ समझ आ गई

कुछ लोग आगे बढ़ने लगे, स्टेज पर चढ़ने लगे 

मैंने सोचा वे आ रहे हैं , टमाटर ले जाना चाह रहे हैं | 

इससे पहले कि वे स्टेज पर पहुँचें, 

मैं टमाटर इकट्ठे करने लगा ।

एक श्रोता मेरे पास आया, 

कालर पकड़ कर उसने मुझे उठाया, 

और बोला आप स्टेज से उतरने का क्या लेंगे ? 

मैंने कहा, आप के पास है ही क्या, जो आप मुझे दोगे ? 

अभी आप ने मुझे दिया ही क्या है ?

इन टमाटरों के साइज़ पर आपने गौर किया है? 

अब ये टमाटर खा कर, कोई कालिदास नहीं बन सकता 

मामूली सा कवि भले ही बन जाए, 

पर कुछ ख़ास नहीं बन सकता। 

इतने छोटे टमाटर देख कर, 

कोई भी चुप कर जाता 

वो तो हम ही हैं जो कहे जा रहे हैं 

सरासर नाइन्साफ़ी हो रही है, 

फिर भी चुप रह कर सहे जा रहे हैं। 

और फिर देखिए न, अभी कुल मिला कर 

पाव भर टमाटर तो मिले नहीं 

यदि आप सोचते हो कि, 

इतने से टमाटर लेकर हम मान जायेंगे, 

तो थोड़ी कविता और सुन लीजिए, 

फिर हमें आप अवश्य जान जायेंगे 

लगता है मेरे शेरों में नहीं रहा दम है 

या फिर पता नहीं क्यों, आज रिस्पोंस बड़ा कम है।

यदि आप यूँ ही ठण्डा रिस्पोंस दिखाते रहेंगे, 

तो अच्छे कवियों को सुनने से तो आप जाते रहेंगे 

इनकी नस्ल तो वैसे ही कम होती जा रही है 

सरकार दो के बाद बस का कानून बना रही है।

और पहले ही राऊँड में तो ये मिलते नहीं 

काफी पसीना बहाना पड़ता है। 

पंजीरी और देसी घी खिलाना पड़ता है 

तब कहीं जाकर भाग खुलते हैं, 

मुझ से कवि ईनाम में मिलते हैं।

और आप यहाँ दुर्व्यवहार कर रहे हैं 

बहुमुल्य हीरे का तिरस्कार कर रहे हैं 

यदि आप वाकई चाहते हैं, 

कि मैं स्टेज से उतर जाऊँ, 

और जल्दी से वापिस लौट कर न आऊँ, 

तो जाइए कहीं से थोड़ी सब्ज़ी ले आइए। 

यदि मैं इतने से टमाटर ले कर घर गया, 

तो निश्चय ही लौटा दिया जाऊँगा 

या फिर श्रीमतीजी को स्वयं ही आना पड़ेगा 

एक-आध छन्द उन्हें ही सुनाना पड़ेगा 

सोच लो यदि वह आ गईं, 

तो उन्हें कैसे मनाओगे? 

उसे चुप कराने के लिए, 

सब्ज़ी कहाँ से लाओगे?

इतने में चार श्रोताओं ने मुझे उठाया, 

और पण्डाल से बाहर खड़ा कर दिया 

और हाथ जोड़ कर कहा, 

कृप्या आप यहाँ से जाएँ, 

और अपनी कविता कहीं और जाकर सुनाएँ।

मैंने कहा सही है,

हीरे को हर कोई नहीं परख सकता, 

पर मेरी टोकरी तो मेरी है, 

उसे तो कोई नहीं रख सकता 

मेरी टोकरी दे दीजिए,

मैं यहाँ से जाता हूँ 

और जा कर अपनी कविता, 

किसी सब्ज़ी मार्केट में सुनाता हूँ।

माना मैं अपनी कविता यहाँ नहीं सुना सकता, 

पर मेरी भी कुछ मजबूरी है, 

सब्ज़ी लिए बिना आज मैं भी, 

घर वापिस नहीं जा सकता ।